Saturday, February 18, 2012

ये दिल क्या चाहता है.....



ये दिल क्या चाहता है,
उसे सब कुछ पता है.

मैं कस के बांधता हूँ,
वो गांठें खोलता है.

ख़ता तेरी भुला दी,
मेरी बस ये ख़ता है.

सुनारों की तरह वो,
मुहब्बत तोलता है.

कभी होता है पानी,
कभी खूं खौलता है.

तेरा एहसास घर की,
फिजां में डोलता है.

मिला है चाँद को जो,
वही तुझको अता है.

Thursday, February 2, 2012

एक लम्बे अंतराल के बाद...एक ग़ज़ल..


डोर रिश्तों की ढीली तो नहीं है,
कोइ दीवार सीली तो नहीं है.

देख लेना कभी जो घर बनाओ,
कहीं बुनियाद गीली तो नहीं है.

ये सूखे पेड़ जैसे हैं मरासिम,
किसी माचिस में तीली तो नहीं है.

ज़ोर डाला तो कागज़ फाड़ देगी,
कलम कुछ तेज़ छीली तो नहीं है.

साथ रिन्दों के बैठे रात भर से,
मगर दो घूँट भी ली तो नहीं है.

पाँव रखने से पहले देख लेना,
डाल ज़्यादा लचीली तो नहीं है.