Saturday, June 26, 2010

तुम्हारी खुशबु...

कहा था ना तुमसे,
बाँहों में भर लो मुझे,
बिना मिले ही चली गईं तुम,

तुम्हारे कहे मुताबिक़,
रोज़ दाना डालता हूँ कबूतरों को,

छत भर गई है सारी,
ज्वार और मक्का के दानों से,

आते तो हैं कबूतर
रोज़ छत पर,

छूते हैं दानों को,
मेरी तरफ देखते हैं,
और उड़ जाते हैं बिना खाए ही,

दानो में तुम्हारी खुशबु जो नहीं मिलती,

कहा था ना तुमसे
बाँहों में भर लो मुझे,
बिना मिले ही चलीं गईं तुम...

Tuesday, June 15, 2010

रोटियां....

गोल गोल चाँद के सामान रोटियां,
भूख और गरीब की पहचान रोटियां.

मिल गई अगर, तो जलन पेट की मिटे,
ना मिले तो मौत का पैगाम रोटियां.

आरती का थाल है गरीब के लिए,
भूखे को नमाज़ की अज़ान रोटियां.

महलों में महंगे नगीनों की हवस रही है,
झोंपड़ी का है फ़क़त अरमान रोटियां.

मर जाना चाहे भूख से खाना कभी नहीं,
अमीर के महल की बेईमान रोटियां.

नारे सियासी लोग लगाते बड़े बड़े,
गरीब के लिए है राष्ट्रगान रोटियां

एक मुक्तक...


जो बोलो तो ये सारी दौलत-ओ-असबाब बाँट दूँ,


ये नीदें नोच दूँ, आँखों के सारे ख्वाब बाँट दूँ,


बहुत खुदगर्ज़ हूँ मैं एक तेरे ही लिए जाना,


मिले जो तू मुझे ये सूरज-ओ-महताब बाँट दूँ.

भूल से प्यार कर लिया होगा..


यूँ ही बाँहों में भर लिया होगा,
भूल से प्यार कर लिया होगा.

चांदनी फ़ैल गई बिस्तर पे,
चाँद तकिये पे धर लिया होगा.

दाम सोने का कम हुआ है उधर,
तूने पीतल इधर लिया होगा.

बैठ कर दूर तुझसे सोचता हूँ,
आज पल्ला किधर लिया होगा.

ज़बान लड़खड़ा गई होगी,
हमारा नाम गर लिया होगा.

किताबे ज़ीस्त में कुछ भी न बचा,
हाशिया तक भी भर लिया होगा.

Monday, June 7, 2010

"लैला" समंदर में मिली...


बोलो खड़े रह पाओगे क्या जंग के मैदान में,
झाँक कर तो देख लो अपने भी गिरहेबान में.

घूमता रहता था अक्सर चाँद जिस दालान में,
अब नहीं खुलती कोई खिड़की भी उस मकान में.

हुस्नो ग़म इश्को वफ़ा के सारे मानी याद हैं,
नाम अपना भी लिखा दो इश्क के दीवान में.

रंग-औ-मज़हब की सियासी चाल ने उलझा दिया,
फर्क वर्ना कुछ नहीं इंसान और इंसान में.

उस बरस भेजा था तूने कच्चे आमों का अचार,
माँ तेरी खुशबु अभी तक भी है मर्तबान में.

कल तेरी झुमकी का हीरा देखकर ऐसा लगा,
चाँद ने पहना हो ज्यूँ ध्रुव तारा अपने कान में.

ये सुना था उसके घर में आये हैं मेहमान कुछ,
एक बेटी बिक गई रिश्तों भरी दुकान में.

कल सुनी थी ये खबर "लैला" समंदर में मिली,
कश्तियों के डूबने का डर है इस तूफ़ान में

Tuesday, June 1, 2010

एक ग़ज़ल..यूँ ही सी..


मेरी दुनिया है अलग सी, मैं अकेला सा हूँ,
आप क्या मुझ को संभालोगे झमेला सा हूँ.

लोग सब दूर ही रहते हैं मुझसे डरते हैं,
थोड़ा पागल हूँ मैं सनकी हूँ हठेला सा हूँ.

मेरी तासीर अलग है मेरी खुशबू भी अलग,
महक गुलाब की देता हूँ करेला सा हूँ.

बस एक बार देख लो मुझे अजमा भी लो,
इश्क की गर्द हूँ मैं प्यार का ढेला सा हूँ.

यूँ मुझे रोकना आसान नहीं है यारों,
नदी के बहते हुए पानी का रेला सा हूँ.

जो मेरे साथ रहोगे तो सुकूं पाओगे,
मैं तो बस गर्मियों की गोधुली बेला सा हूँ.