Thursday, August 20, 2009

मैं सफर कर लूँगा...



तेरी आँख के पानी को ही घर कर लूँगा,
मैं हिना बनके हथेली में बसर कर लूँगा.

तुम अगर साथ निभाने का मुझसे वादा करो,
चाहे जितना भी हो लम्बा मैं सफ़र कर लूँगा.

यूँ मैं सो जाऊंगा सर रख के गोद में तेरी,
तेरी जुल्फ के साए को शज़र कर लूँगा.

मांग लूँगा खुदा से तुझे सब कुछ खोकर,
मैं दुआओं में अपनी इतना असर कर लूँगा.

आओ थोडा सा प्यार कर लें उसके बाद सनम,
तुम उधर कर लेना करवट मैं इधर कर लूँगा.

तेरी तस्वीर को तकिये पे सजा कर रख लूँ,
फिर तेरी याद के साए में सहर कर लूँगा.

खर्च करने के लिए हूँ..


मैं बस तुम्हारे ख्वाब में बसने के लिए हूँ,
हकीक़त में मिल ना पाउँगा सपने के लिए हूँ.

सौ बार बिगाडो मुझे बनने के लिए हूँ,
रूठने को तुम हो मैं मनने के लिए हूँ.

खुशबु भी हसीं है मेरी रंगत भी हसीं है,
मेहँदी हूँ, तेरे हाथ पे रचने के लिए हूँ.

पन्ने पलटने से तो कोई फायदा नहीं,
दिल की किताब हूँ, मैं पढने के लिए हूँ.

ये ही नसीब है मेरा, ये ही शगल भी है,
सहरा की तेज़ धूप में तपने के लिए हूँ.

क्यूँ रख रहे हो मुझे तिजोरी में छुपा के,
खर्च कीजिये, खर्च करने के लिए हूँ.

हार समझ कर मुझे गर्दन में ना डालो,
रुद्राक्ष की माला हूँ मैं जपने के लिए हूँ.

Sunday, August 9, 2009

बारिश...(एक नज़्म)

बादल भी थे हवा भी, बिजली भी थी घटा भी,
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काली घटा से आसमान काला हो चला था,
दिन में भी रात जैसा अँधियारा हो चला था,
सड़क पे बरसात की बूंदें मचल रहीं थीं,
बच्चों की टोलियाँ भी पानी में चल रहीं थीं,
पीने के इरादे से कुछ मन बहक रहे थे,
पेड़ों पे नई धुन में पंछी चहक रहे थे,
कोयल भी कहीं छुप कर कोई गीत गा रही थी,
कहीं दूर पपीहे की आवाज आ रही थी,
जश्न का आलम था रंगीन फिजायें थीं,
आसमां पे छाई हुई काली घटायें थीं,
मिटटी की सौंधी सौंधी खुश्बू महक रही थी,
कांच की मानिंद ही सड़क चमक रही थी,
उस सड़क के किनारे फुटपाथ सा बना था,
पानी भरा हुआ था और मिटटी से सना था,
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उस ओर अचानक जो नज़र गई हमारी,
सिकुड़ा हुआ नंगे बदन बैठा था इक भिखारी,
बेजान बुत की तरह वो बैठा था ज़मीं पे,
चिंता की लकीरें थीं भीगी हुई जबीं पे,
पानी में भीग भीग कर चमडी पिघल रही थी,
उसकी जटाओं से भी गंगा निकल रही थी,
चेहरा बुझा बुझा था आँखें थीं खोई खोई,
लगता था जैसे आँख ये बरसों से नहीं सोई,
मैंने भी ज़रा रुक कर कुछ तरस उस पे खाया,
हाथ जेब में गया और कलदार ढूंड लाया,
कलदार एक लेकर मैंने उस तरफ बढाया,
उसने भी झोली खोली फिर हाथ भी बढाया,
कलदार उसको दे कर मैं आगे बढ़ गया था,
बरसात पे श्रृंगार का इक गीत गढ़ गया था,
बरसात की रंगीनियों में फिर मैं खो गया था,
दो एक जाम पी कर बिस्तर पे सो गया था,
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सुबह फिर अखबार था खबरों का सिलसिला था,
सड़क के किनारे एक भिखारी मरा मिला था.......
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कोई समझा है ना समझेगा ये कुदरत क्या है,
मुझे बताओ ऐसी "बारिश" की ज़रुरत क्या है.

जवां नीदों में...



जवां नींदों में हसीं ख्वाब का बाज़ार लगता है,
यहाँ हर शख्स फकत एक खरीदार लगता है.

इसे दीवानगी समझो ये सिर्फ प्यार नहीं है,
मेरी तबियत उदास हो तो वो बीमार लगता है.

अगर दरवाजे पे हँसता हुआ चेहरा नहीं दिखता,
मैं सच कहूँ घर लौटना बेकार लगता है.

तेरी आँखों के इशारे मुझे समझ नहीं आते,
कभी इंकार लगता है कभी इकरार लगता है.

जब भी वो मेरे जिस्म को छू कर गुजरती है,
हरारत सी रहती है मुझे बुखार लगता है.

वादा किया था उसने की सन्डे को मिलेंगे,
तब से मुझे हर रोज़ रविवार लगता है.

कोई भी रात अँधेरी नहीं होती मेरे घर की,
अमावस में भी मेरा चाँद चमकदार लगता है.

प्यार करके थक गए...



मीठे ख्वाबों में वो गुम से हो गए हैं,
प्यार करके थक गए तो सो गए हैं.

बीच में दीवार तकिये की बना ली,
आज लगता है खफा वो हो गए हैं.

जैसे अंधियारे में गुम हो जाये कोई,
हम तेरे होठों के तिल में खो गए हैं.

बूँद बारिश की टपकती है लटों से,
आज बादल चाँद को भिगो गए हैं.

कत्ल करने का हुनर आता है उनको,
खून के सारे निशां वो धो गए हैं.

वो जो आये रौशनी चमकी थी शब् में,
अब अँधेरा है कि शायद वो गए हैं.

ये पसीने की ना बारिश की हैं बूँदें,
हम तेरे कांधे से लग के रो गए हैं.

ग़ज़ल किसे कहते हैं..

हौसलों को देखिये परवाज़ देखिये,
बहर को भूल जाइये अल्फाज़ देखिये.

है जिंदगी भी गीत इसे गुनगुनाइए,
साज़ छोड़ दीजिये आवाज़ देखिये.

ग़म को ख़ुशी समझ के गले से लगा लिया,
ग़म से मुकाबले का ये अंदाज़ देखिये.

तन्हा सफ़र कटेगा जिंदगी का किस तरह,
कोई हमराह ढूँढिये कोई हमराज़ देखिये.

प्यार के लिए कोई मुमताज़ तो मिले,
हम भी बना ही देंगे कोई ताज देखिये.

श्री कृष्ण ने गीता* में यही बात है कही,
अंजाम छोड़ दीजिये आगाज़ देखिये.

ग़ज़ल किसे कहते है अगर जानना चाहो,
दुष्यंत या क़तील औ फ़राज़ देखिये**.

*गीतोपदेश : "कर्म किये जा फल की चिंता मत कर
** ग़ज़ल के बेताज़ बादशाह दुष्यंत कुमार, क़तील शिफाई और अहमद फ़राज़ साहब को समर्पित.

प्यार की खातिर..

हम ज़हर बस तेरी खातिर ही पिया करते हैं,
दर्द का बोझ भी पलकों पे लिया करतें हैं.

न तो दौलत न तो शोहरत की तम्मना है हमें,
हम तो बस प्यार की खातिर ही जिया करतें हैं.

न हमें ज़ख्म की चिंता रही ना काटों की,
हम अपने ज़ख्म भी काँटों से सिया करतें हैं.

जाम पकडा दिया होठों से लगाकर उसने,
बोसे इस तरह लबों पे वो दिया करतें हैं.

यूँ तो उनको भी है कुछ शौक जफा करने का,
हमसे इजहारे वफ़ा ही वो किया करतें हैं.

बारिश

शब्द हंसते हैं बहर गाती है,
जब भी बारिश घुमड़ के आती है.

किस तरह मैं बचाऊँ अब इनको,
हर ग़ज़ल भीग भीग जाती है.

इक बहाना सा मिल गया है उसे,
मुझसे मिलने कहाँ वो आती है.

कैसा दरिया हुआ है बच्चों का,
कश्ती कागज़ की तैर जाती है.

बूँद बारिश की तेरे गालों पे,
क्या कलाबाजियां दिखाती है.

काले बादल के बीच बगुलों की,
एक सफ में बारात जाती है.

होगी बारिश की देखो चिडिया भी,
आज फिर धूल में नहाती है.

बारिशों में ही माँ भी शिवलिंग पर,
बेल की पत्तियां चढाती है.